बिहार में जमीन से जुड़े विवाद हर गांव–कस्बे तक फैले हुए हैं। लोग अक्सर शिकायत करते हैं कि सालों से उनकी जमीन का रिकार्ड अप–टू–डेट नहीं है या गलत नाम चढ़ा हुआ है। ऐसे में राज्य सरकार बिहार भूमि सर्वे को सबसे बड़ी जिम्मेदारी मान रही है। शुरुआत में सर्वे जुलाई 2026 तक खत्म होना था, पर अब सरकार ने इसे 30 दिसंबर 2026 तक खींच दिया है। इस फैसले की घोषणा विधानसभा में राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री संजय सरावगी ने करने के बाद अफसरों से लेकर जिले–ब्लॉक स्तर तक हलचल मच गई।
जमीन के सर्वे के जरिए सरकार पूरी कोशिश कर रही है कि हर खानदान की मिल्कियत, सीमांकन और अन्य रिकॉर्ड एकदम दुरुस्त हो जाएं। इसका फायदा सीधे आम लोगों को मिलेगा—न तो वंशावली गलत होगी, न ही थोड़ी–सी चूक में किसी की जमीन दूसरों के नाम हो जाएगी। सबसे खास बात यह है कि इन रिकॉर्ड्स को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी डाला जा रहा है, जिससे सालों की जमीनी उठापटक खुद–ब–खुद काबू में आ सके। जमीन के मालिकों को लिए भी यह काफी राहत देने वाली खबर है।
डेडलाइन बढ़ने से लोगों को राहत तो मिली है, लेकिन असली सिरदर्द बना है स्व–घोषणा। हर जमीन मालिक को वंशावली, संपत्ति और अपने दावे की पूरी जानकारी एक फॉर्मेट में जमा करनी है। इसके लिए आखिर तारीख 31 मार्च 2025 ही रखी गई है। विपक्षी नेताओं का कहना है कि ये टारगेट पूरा करना लोगों के लिए टेढ़ी खीर है। Reason साफ है—ग्राम पंचायत से प्रमाणित कागजात लेना, सरकारी दफ्तरों के चक्कर और ऑनलाइन सर्वर लगातार डाउन रहना, इन सबसे जनता त्रस्त है। आरजेडी (RJD) ने इस तारीख को आगे बढ़ाने की जोरदार मांग रखी, लेकिन मंत्री सरावगी ने फिलहाल इसमें कोई ढील नहीं दी। उनका कहना है कि जहां–जहां गड़बड़ी थी, उसे सुधार भी रहे हैं और बड़ी बात यह कि जिन–जिन डिवीजनों में डाटा अपलोड हो रहा है वहाँ सिस्टम ठीक है।
विपक्षी पार्टियां इसे भ्रष्टाचार का पिटारा बता रही हैं। विरोधियों के अनुसार, म्युटेशन (नामांतरण) के नाम पर भारी–भरकम घूस मांगी जाती है, ब्लॉक–कर्मियों की लापरवाही से डाटा में गड़बड़ियां दर्ज होती हैं और ग्रामीण लगातार परेशान होते हैं। इसके जवाब में मंत्री ने फिर दोहराया कि विभागीय अफसरों को सख्त हिदायत दी गई है—गलतियों पर तत्काल एक्शन हो, नहीं तो जिम्मेदार अफसरों पर कार्रवाई तय है।
अब तक के इस अभियान के लिए लगभग ₹1,955 करोड़ का संशोधित बजट पास हो चुका है, जबकि विपक्ष के वाक–आउट के बीच ही सरकार ने नए बजट को मंजूरी दे दी।
तारीख़ें तो आगे–पीछे हो सकती हैं, लेकिन जो उम्मीदें सरकार ने जगाई हैं, उन पर निगाह टिक गई है—क्या वाकई बिहार में जमीन का रिकॉर्ड दो साल बाद एकदम साफ–सुथरा दिखेगा, या फिर लोग फाइलें पकड़–पकड़ कर ही भागते रह जाएंगे?
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